हवा के तख़्त पर अगर तमाम उम्र तू रहा

हवा के तख़्त पर अगर तमाम उम्र तू रहा

मुझे ख़बर न हो सकी प साथ साथ मैं भी था

चमकते नूर के दिनों में तेरे आस्ताँ से दूर

वो मैं कि आफ़्ताब की सफ़ेद शाख़ पर खिला

हिजाब आ गया था मुझ को दिल के इज़्तिराब पर

यही सबब है तेरे दर पे लौट कर न आ सका

वो किस मकाँ की धूप थी, गली गली में भर गई

वो कौन सब्ज़ा-रुख़ था जो कि मोम सा पिघल गया

कभी तो चल के देखो साए पीपलों के देस के

जहाँ लड़कपना हमारे हाथ से जुदा हुआ

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