अज़ल के क़िस्सा-गो ने दिल की जो उतारी दास्ताँ

अज़ल के क़िस्सा-गो ने दिल की जो उतारी दास्ताँ

कहीं कहीं से उस ने तो बहुत सँवारी दास्ताँ

हुआ से जो सैरबीं पुराने मौसमों की है

सुना सुना के थक गई मिरी तुम्हारी दास्ताँ

किसी का साया रह गया गली के ऐन मोड़ पर

उसी हबीब साए से बनी हमारी दास्ताँ

मिरी जबीं पे सानेहात ने लिखी हैं अर्ज़ियाँ

ये अर्ज़ियाँ हैं हसरतों की एक भारी दास्ताँ

दिल-ए-ख़राब-ओ-ख़स्ता पर नज़र न तू ने की बहाल

कि उस मकाँ की तेरे गोश सौ गुज़ारी दास्ताँ

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