धुँद
मुसाफ़िरों से कहो आसमाँ को मत देखें
न कोई अब्र का टुकड़ा
न कोई तार-ए-शफ़क़
गुज़शता शाम का उट्ठा हुआ वो गर्द-ओ-ग़ुबार
अभी तलक हैं फ़ज़ाएँ उसी से आलूदा
वो एक आग कभी ज़ाद-ए-राह थी! अपना
जहाँ क़याम किया था
वहीं पे छोड़ आए
तो अहल-ए-क़ाफ़िला
अब दास्तान-गो से कहो
कोई रिवायत-ए-कुहना कोई हिकायत-ए-नौ
जो ख़ूँ को सर्द करे
और सोच बिखरा दे
कि ऐसे वक़्त में ख़ामोशियाँ तो ठीक नहीं
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