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ग़ुबार-ए-नूर है या कहकशाँ है या कुछ और - अली अकबर अब्बास कविता - Darsaal

ग़ुबार-ए-नूर है या कहकशाँ है या कुछ और

ग़ुबार-ए-नूर है या कहकशाँ है या कुछ और

ये मेरे चारों तरफ़ आसमाँ है या कुछ और

जो देखा अर्श-ए-तसव्वुर से बारहा सोचा

ये काएनात भी अक्स-ए-रवाँ है या कुछ और

मैं खोए जाता हूँ तन्हाइयों की वुसअत में

दर-ए-ख़याल दर-ए-ला-मकाँ है या कुछ और

फ़िराक़-ए-उम्र की हद क्यूँ लगाई है उस ने

मिरा वजूद ही उस को गिराँ है या कुछ और

अज़ल से ता-ब-अबद जस्त एक साअत की

यही बस अर्सा-ए-कार-ए-जहाँ है या कुछ और

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