मुस्तहिक़ वो लज़्ज़त-ए-ग़म का नहीं
मुस्तहिक़ वो लज़्ज़त-ए-ग़म का नहीं
जिस ने ख़ुद अपना लहू चक्खा नहीं
उस शजर के साए में बैठा हूँ मैं
जिस की शाख़ों पर कोई पत्ता नहीं
कौन देता है दर-ए-दिल पर सदा
कह दो मैं भी अब यहाँ रहता नहीं
बन रहे हैं सतह-ए-दिल पर दाएरे
तुम ने तो पत्थर कोई फेंका नहीं
उँगलियाँ काँटों से ज़ख़्मी हो गईं
हाथ फूलों तक अभी पहुँचा नहीं
एक ख़ुशबू साथ जो पल भर रही
उम्र भर पीछा मिरा छोड़ा नहीं
वो मक़ाम-ए-फ़िक्र है मिरा 'अली'
जिस बुलंदी तक कोई पहुँचा नहीं
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