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ये किस मुहिम पर चले थे हम जिस में रास्ते पुर-ख़तर न आए - अलीना इतरत कविता - Darsaal

ये किस मुहिम पर चले थे हम जिस में रास्ते पुर-ख़तर न आए

ये किस मुहिम पर चले थे हम जिस में रास्ते पुर-ख़तर न आए

हमें नवाज़ा न वहशतों ने हमें जुनूँ के हुनर न आए

मुझे बहुत तेज़ धूप दरकार है मोहब्बत के इस सफ़र में

चमकते सूरज को साया करने कोई घनेरा शजर न आए

अँधेरी शब का ये ख़्वाब-मंज़र मुझे उजालों से भर रहा है

ये रात इतनी तवील कर दे कि ता-क़यामत सहर न आए

जहाँ हूँ तेरी ही रौनक़ें और तिरे नज़ारे ही चारों जानिब

उस अंजुमन का पता बता दे जहाँ से मेरी ख़बर न आए

जो लौट आए कोई सफ़र से तो फिर मुसाफ़िर कहाँ हुआ वो

वही मुसाफ़िर है जो सफ़र में है और कभी लौट कर न आए

वो आसमानों में रहने वाला सुनेगा इक दिन 'अलीना' तेरी

सदा को अपनी बुलंद रख तू दुआ में जब तक असर न आए

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