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ख़िज़ाँ की ज़र्द सी रंगत बदल भी सकती है - अलीना इतरत कविता - Darsaal

ख़िज़ाँ की ज़र्द सी रंगत बदल भी सकती है

ख़िज़ाँ की ज़र्द सी रंगत बदल भी सकती है

बहार आने की सूरत निकल भी सकती है

जला के शम्अ अब उठ उठ के देखना छोड़ो

वो ज़िम्मेदारी से अज़-ख़ुद पिघल भी सकती है

है शर्त सुब्ह के रस्ते से हो के शाम आए

तो रात उस को सहर में बदल भी सकती है

ज़रा सँभल के जलाना अक़ीदतों के चराग़

भड़क न जाएँ कि मसनद ये जल भी सकती है

अभी तो चाक पे जारी है रक़्स मिट्टी का

अभी कुम्हार की निय्यत बदल भी सकती है

ये आफ़्ताब से कह दो कि फ़ासला रक्खे

तपिश से बर्फ़ की दीवार गल भी सकती है

तिरे न आने की तशरीह कुछ ज़रूरी नहीं

कि तेरे आते ही दुनिया बदल भी सकती है

कोई ज़रूरी नहीं वो ही दिल को शाद करे

'अलीना' आप तबीअत बहल भी सकती है

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