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बगूला बन के नाचता हुआ ये तन गुज़र गया - अलीना इतरत कविता - Darsaal

बगूला बन के नाचता हुआ ये तन गुज़र गया

बगूला बन के नाचता हुआ ये तन गुज़र गया

हवा में देर तक उड़ा ग़ुबार और बिखर गया

हमारी मिट्टी जाने कौन ज़र्रा ज़र्रा कर गया

बग़ैर शक्ल ये वजूद चाक पर बिखर गया

ये रूह हसरत-ए-वजूद की बक़ा का नाम है

बदन न हो सका जो ख़्वाब रूह में ठहर गया

अजब सी कशमकश तमाम उम्र साथ साथ थी

रखा जो रूह का भरम तो जिस्म मेरा मर गया

हर एक राह उस के वास्ते थी बे-क़रार और

मुसाफ़िर अपनी धुन में मंज़िलों से भी गुज़र गया

उड़ा दी राख जिस्म की ख़ला में दूर दूर जब

'अलीना' आसमानी नूर रूह में उतर गया

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