वो अर्ज़-ए-ग़म पे मश्वरा-ए-इख़्तिसार दे
वो अर्ज़-ए-ग़म पे मश्वरा-ए-इख़्तिसार दे
कूज़े में कैसे कोई समुंदर उतार दे
दुनिया हो आख़िरत हो वो सब को सँवार दे
तौफ़ीक़-ए-इश्क़ जिस को भी पर्वरदिगार दे
फिर दावत-ए-करम निगह-ए-शो'ला-बार दे
अल्लाह मुस्तक़िल मुझे सब्र-ओ-क़रार दे
जिस फूल का भी देखिए दामन है तार तार
कितना बड़ा सबक़ हमें फ़स्ल बहार दे
दर्द-ए-जिगर शिकस्ता-दिली बे-क़रारियाँ
क्या क्या न लुत्फ़ मुझ को तिरा इंतिज़ार दे
वाइ'ज़ उसे बताओ न जन्नत के तुम मज़े
ख़ुल्द-ए-बरीं का लुत्फ़ जिसे कू-ए-यार दे
कंगन उधर कलाई में घूमा तो यूँ लगा
आवाज़ मुझ को गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार दे
चेहरे पे वो सजाए है मासूमियत का नूर
अब कौन उस को ज़हमत-ए-बोस-ओ-कनार दे
मैं हूँ शहीद-ए-राह-ए-मोहब्बत मगर 'अलीम'
मेरा ग़लत पता मिरी लौह-ए-मज़ार दे
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