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वो अर्ज़-ए-ग़म पे मश्वरा-ए-इख़्तिसार दे - अलीम उस्मानी कविता - Darsaal

वो अर्ज़-ए-ग़म पे मश्वरा-ए-इख़्तिसार दे

वो अर्ज़-ए-ग़म पे मश्वरा-ए-इख़्तिसार दे

कूज़े में कैसे कोई समुंदर उतार दे

दुनिया हो आख़िरत हो वो सब को सँवार दे

तौफ़ीक़-ए-इश्क़ जिस को भी पर्वरदिगार दे

फिर दावत-ए-करम निगह-ए-शो'ला-बार दे

अल्लाह मुस्तक़िल मुझे सब्र-ओ-क़रार दे

जिस फूल का भी देखिए दामन है तार तार

कितना बड़ा सबक़ हमें फ़स्ल बहार दे

दर्द-ए-जिगर शिकस्ता-दिली बे-क़रारियाँ

क्या क्या न लुत्फ़ मुझ को तिरा इंतिज़ार दे

वाइ'ज़ उसे बताओ न जन्नत के तुम मज़े

ख़ुल्द-ए-बरीं का लुत्फ़ जिसे कू-ए-यार दे

कंगन उधर कलाई में घूमा तो यूँ लगा

आवाज़ मुझ को गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार दे

चेहरे पे वो सजाए है मासूमियत का नूर

अब कौन उस को ज़हमत-ए-बोस-ओ-कनार दे

मैं हूँ शहीद-ए-राह-ए-मोहब्बत मगर 'अलीम'

मेरा ग़लत पता मिरी लौह-ए-मज़ार दे

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