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मौत आई है ज़माने की तो मर जाने दो - अलीम उस्मानी कविता - Darsaal

मौत आई है ज़माने की तो मर जाने दो

मौत आई है ज़माने की तो मर जाने दो

कम से कम उस की जवानी तो गुज़र जाने दो

जाग उट्ठेंगे हम अभी ऐसी ज़रूरत क्या है

धूप दीवार से कुछ और उतर जाने दो

मुद्दतें हो गईं इक बात मिरे ज़ेहन में है

सोचता हूँ तुम्हें बतलाऊँ मगर जाने दो

गर्दिश-ए-वक़्त का कितना है कुशादा आँगन

अब तो मुझ को इसी आँगन में बिखर जाने दो

ख़ुश-नसीबी से इधर आतिश-ए-ग़म ख़ूब है तेज़

दोस्तो अब मिरी हस्ती को निखर जाने दो

कोई मंज़िल नहीं रह जाएगी सर होने को

आदमी को ज़रा अल्लाह से डर जाने दो

तोड़ दो बढ़ के ये मफ़रूज़ा वफ़ाओं के हिसार

दिल की आवाज़ जिधर जाए उधर जाने दो

वक़्त के हाथ का फेंका हुआ पत्थर हूँ मैं

अब तो मुझ को किसी शीशे में उतर जाने दो

उलझनें ख़त्म न क्यूँ होंगी ज़माने की 'अलीम'

उन के उलझे हुए गेसू तो सँवर जाने दो

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