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देती हैं थपकियाँ तिरी परछाइयाँ मुझे - अलीम उस्मानी कविता - Darsaal

देती हैं थपकियाँ तिरी परछाइयाँ मुझे

देती हैं थपकियाँ तिरी परछाइयाँ मुझे

रश्क-ए-बहिश्त हैं मिरी तन्हाइयाँ मुझे

मेरे नसीब में सही आह-ओ-फ़ुग़ाँ मगर

अब तो सुनाई देती हैं शहनाइयाँ मुझे

कितने उरूज पर है मिरे इश्क़ का वक़ार

हासिल हैं कू-ए-यार की रुस्वाइयाँ मुझे

माइल है चश्म-ए-मस्त इधर लग रहा है अब

आवाज़ देंगी झील की गहराइयाँ मुझे

क़ाएम है मेरे दर्द का अब तक वही भरम

अब भी सलाम करती हैं पुरवाइयाँ मुझे

इस दौर-ए-सरकशी की कशाकश के दरमियाँ

लगती है पुर-सुकून जबीं-साइयाँ मुझे

जो थे ख़राब वो तो बुलंदी पे हैं 'अलीम'

पस्ती में ले गईं मिरी अच्छाइयाँ मुझे

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