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मैं जिस का मुंतज़िर हूँ वो मंज़र पुकार ले - अलीम सबा नवेदी कविता - Darsaal

मैं जिस का मुंतज़िर हूँ वो मंज़र पुकार ले

मैं जिस का मुंतज़िर हूँ वो मंज़र पुकार ले

शायद निकल के जिस्म से बाहर पुकार ले

मैं ले रहा हूँ जाएज़ा हर एक लहर का

क्या जाने कब ये मुझ को समुंदर पुकार ले

सदियों के दरमियान हूँ मैं भी तो इक सदी

इक बार मुझ को अपना समझ कर पुकार ले

मैं फिर रहा हूँ शहर में सड़कों पे ग़ालिबन

आवाज़ दे के मुझ को मिरा घर पुकार ले

शीशे की तरह वक़्त के हाथों में हूँ हनूज़

कब जाने हादसात का पत्थर पुकार ले

वो लम्हा जिस की ज़ेहन-ए-'सबा' को तलाश है

रोने के एहतिमाम में हँस कर पुकार ले

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