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निगाह-ए-लुत्फ़ क्या कम हो गई है - अलीम अख़्तर कविता - Darsaal

निगाह-ए-लुत्फ़ क्या कम हो गई है

निगाह-ए-लुत्फ़ क्या कम हो गई है

मोहब्बत और मोहकम हो गई है

तबीअत कुश्ता-ए-ग़म हो गई है

चराग़-ए-बज़्म-ए-मातम हो गई है

मआल-ए-ज़ब्त-ए-पैहम हो गई है

मसर्रत हासिल-ए-ग़म हो गई है

तमन्ना जब बढ़ी है अपनी हद से

तो मायूसी का आलम हो गई है

न जाने क्यूँ अदावत ही अदावत है

सिरिश्त-ए-इब्न-ए-आदम हो गई है

है महव-ए-रक़्स हर बर्ग-ए-चमन पर

बड़ी बेबाक शबनम हो गई है

हँसी होंटों पर आते आते 'अख़्तर'

पयाम-ए-गिर्या-ए-ग़म हो गई है

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