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किसी के वादा-ए-फ़र्दा पर ए'तिबार तो है - अलीम अख़्तर कविता - Darsaal

किसी के वादा-ए-फ़र्दा पर ए'तिबार तो है

किसी के वादा-ए-फ़र्दा पर ए'तिबार तो है

तुलू-ए-सुब्ह-ए-क़यामत का इंतिज़ार तो है

मिरी जगह न रही तेरी बज़्म में लेकिन

तिरी ज़बाँ पे मिरा ज़िक्र-ए-नागवार तो है

मता-ए-दर्द को दिल से अज़ीज़ रखता हूँ

कि ये किसी की मोहब्बत की यादगार तो है

ये और बात कि इक़रार कर सकें न कभी

मिरी वफ़ा का मगर उन को ए'तिबार तो है

मक़ाम-ए-दिल कोई मंज़िल न बन सका न सही

तिरी निगाह-ए-मोहब्बत की रहगुज़ार तो है

वो ज़ौक़-ए-दीद न शौक़-ए-नज़ारा अब लेकिन

मिरी नज़र को अभी उन का इंतिज़ार तो है

अगर निगाह-ए-करम शेवा अब नहीं न सही

मिरी तरफ़ अभी चश्म-ए-सितम-शिआर तो है

ये और बात नसीब-ए-नज़र नहीं लेकिन

नफ़स नफ़स तिरे जल्वों से हम-कनार तो है

ज़माना साथ नहीं दे रहा तो क्या 'अख़्तर'

अभी जिलौ में मिरे बख़्त-ए-साज़गार तो है

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