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दिल को शाइस्ता-ए-एहसास-ए-तमन्ना न करें - अलीम अख़्तर कविता - Darsaal

दिल को शाइस्ता-ए-एहसास-ए-तमन्ना न करें

दिल को शाइस्ता-ए-एहसास-ए-तमन्ना न करें

आप इस अंदाज़-ए-नज़र से मुझे देखा न करें

यक-ब-यक लुत्फ़ ओ इनायत का इरादा न करें

आप यूँ अपनी जफ़ाओं को तमाशा न करें

उन को ये फ़िक्र है अब तर्क-ए-तअल्लुक़ कर के

कि हम अब पुर्सिश-ए-अहवाल करें या न करें

हाँ मिरे हाल पे हँसते हैं ज़माने वाले

आप तो वाक़िफ़-ए-हालात हैं ऐसा न करें

उन की दुज़-दीदा-निगाही का तक़ाज़ा है कि अब

हम किसी और को क्या ख़ुद को भी देखा न करें

वो तअल्लुक़ है तिरे ग़म से कि अल्लाह अल्लाह

हम को हासिल हो ख़ुशी भी तो गवारा न करें

इस में पोशीदा है पिंदार-ए-मोहब्बत की शिकस्त

आप मुझ से भी मिरे हाल को पूछा न करें

न रहा तेरी मोहब्बत से तअल्लुक़ न सही

निस्बत-ए-ग़म से भी क्या ख़ुद को पुकारा न करें

मैं कि ख़ुद अपनी वफ़ाओं पे ख़जिल हूँ 'अख़्तर'

वो तो लेकिन सितम ओ जौर से तौबा न करें

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