ये कहना हार न मानी कभी अंधेरों से
बुझे चराग़ तो दिल को जला लिया कहना
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मिरी दस्तरस में है गर क़लम मुझे हुस्न-ए-फ़िक्र-ओ-ख़याल दे
हम अपने इश्क़ की अब और क्या शहादत दें
अहद-ए-कम-कोशी में ये भी हौसला मैं ने किया
सफ़र में राह के आशोब से न डर जाना
असीर-ए-दश्त-ए-बला का न माजरा कहना
बन के ताबीर भी आया होता
हद हो गई थी हम से मोहब्बत में कुफ़्र की
शिकस्त-ए-शीशा-ए-दिल की सदा हूँ
वो कि हर अहद-ए-मोहब्बत से मुकरता जाए
उठते हुए तूफ़ान का मंज़र नहीं देखा