तमाम उम्र की दीवानगी के ब'अद खुला
मैं तेरी ज़ात में पिन्हाँ था और तू मैं था
Parveen Shakir
Gulzar
Rahat Indori
Ahmad Faraz
Jaun Eliya
Anwar Masood
Allama Iqbal
Mir Taqi Mir
Wasi Shah
Mohsin Naqvi
Faiz Ahmad Faiz
Javed Akhtar
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(755) Peoples Rate This
सिवाए-दर-ब-दरी उस को ख़ाक मिलता है
बन के ताबीर भी आया होता
सफ़र में राह के आशोब से न डर जाना
हर दौर में रहा यही आईन-ए-मुंसिफ़ी
गिनती में बे-शुमार थे कम कर दिए गए
शोरीदगी को हैं सभी आसूदगी नसीब
ये कहना तुम से बिछड़ कर बिखर गया 'तिश्ना'
नफ़रत भी उसी से है परस्तिश भी उसी की
वो कि हर अहद-ए-मोहब्बत से मुकरता जाए
आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला
मिरी दस्तरस में है गर क़लम मुझे हुस्न-ए-फ़िक्र-ओ-ख़याल दे