मैं जब भी घर से निकलता हूँ रात को तन्हा
चराग़ ले के कोई साथ साथ चलता है
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हद हो गई थी हम से मोहब्बत में कुफ़्र की
गिनती में बे-शुमार थे कम कर दिए गए
वो कि हर अहद-ए-मोहब्बत से मुकरता जाए
आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला
मा-सिवा-ए-कार-ए-आह-ओ-अश्क क्या है इश्क़ में
मिरी दस्तरस में है गर क़लम मुझे हुस्न-ए-फ़िक्र-ओ-ख़याल दे
हम अपने इश्क़ की अब और क्या शहादत दें
शिकस्त-ए-शीशा-ए-दिल की सदा हूँ
ये कहना हार न मानी कभी अंधेरों से
उठते हुए तूफ़ान का मंज़र नहीं देखा
हर दौर में रहा यही आईन-ए-मुंसिफ़ी
मैं अपनी जंग में तन-ए-तन्हा शरीक था