बन के ताबीर भी आया होता
नित-नए ख़्वाब दिखाने वाला
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मा-सिवा-ए-कार-ए-आह-ओ-अश्क क्या है इश्क़ में
हद हो गई थी हम से मोहब्बत में कुफ़्र की
सफ़र में राह के आशोब से न डर जाना
नफ़रत भी उसी से है परस्तिश भी उसी की
शोरीदगी को हैं सभी आसूदगी नसीब
आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला
असीर-ए-दश्त-ए-बला का न माजरा कहना
अब भी ज़र्रों पे सितारों का गुमाँ है कि नहीं
मैं अपनी जंग में तन-ए-तन्हा शरीक था
हिसार-ए-मक़्तल-ए-जाँ में लहू लहू मैं था
मैं जब भी घर से निकलता हूँ रात को तन्हा