वो कि हर अहद-ए-मोहब्बत से मुकरता जाए

वो कि हर अहद-ए-मोहब्बत से मुकरता जाए

दिल वो ज़ालिम कि उसी शख़्स पे मरता जाए

मेरे पहलू में वो आया भी तो ख़ुश्बू की तरह

मैं उसे जितना समेटूँ वो बिखरता जाए

खुलते जाएँ जो तिरे बंद-ए-क़बा ज़ुल्फ़ के साथ

रंग-ए-पैराहन-ए-शब और निखरता जाए

इश्क़ की नर्म-निगाही से हिना हों रुख़्सार

हुस्न वो हुस्न जो देखे से निखरता जाए

क्यूँ न हम उस को दिल-ओ-जान से चाहें 'तिश्ना'

वो जो इक दुश्मन-ए-जाँ प्यार भी करता जाए

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