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सफ़र में राह के आशोब से न डर जाना - आलमताब तिश्ना कविता - Darsaal

सफ़र में राह के आशोब से न डर जाना

सफ़र में राह के आशोब से न डर जाना

पड़े जो आग का दरिया तो पार कर जाना

ये इक इशारा है आफ़ात-ए-ना-गहानी का

किसी जगह से परिंदों का कूच कर जाना

तुम्हारा क़ुर्ब भी दूरी का इस्तिआरा है

कि जैसे चाँद का तालाब में उतर जाना

तुलू-ए-महर-ए-दरख़्शाँ की इक अलामत है

उठाए शम-ए-यक़ीं उस का दार पर जाना

हम अपने इश्क़ की अब और क्या शहादत दें

हमें हमारे रक़ीबों ने मो'तबर जाना

हर एक शाख़ को पहना गया नुमू का लिबास

सफ़ीर-ए-मौसम-ए-गुल का शजर शजर जाना

हम अपनी सादा-दिली में भी बे-मिसाल रहे

जो हम-सफ़र भी न था उस को राहबर जाना

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