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असीर-ए-दश्त-ए-बला का न माजरा कहना - आलमताब तिश्ना कविता - Darsaal

असीर-ए-दश्त-ए-बला का न माजरा कहना

असीर-ए-दश्त-ए-बला का न माजरा कहना

तमाम पूछने वालों को बस दुआ कहना

ये कहना रात गुज़रती है अब भी आँखों में

तुम्हारी याद का क़ाएम है सिलसिला कहना

ये कहना अब भी सुलगता है जिस्म का चंदन

तुम्हारा क़ुर्ब था इक शोला-ए-हिना कहना

ये कहना चाँद उतरता है बाम पर अब भी

मगर नहीं वो शब-ए-माह का मज़ा कहना

ये कहना मसनद-ए-शाख़-ए-नुमू पे था जो कभी

वो फूल सूरत-ए-ख़ुश्बू बिखर गया कहना

ये कहना क़र्या-ए-जाँ में हैं दम-ब-ख़ुद सब लोग

तमाम शहर हुआ मक़्तल-ए-नवा कहना

ये कहना हसरत तामीर अब भी है दिल में

बना लिया है मकाँ तो मकाँ-नुमा कहना

ये कहना हम ने ही तूफ़ाँ में डाल दी कश्ती

क़ुसूर अपना है दरिया को क्या बुरा कहना

ये कहना हो गए हम इतने मस्लहत-अंदेश

चले जो लू तो उसे अभी ख़ुनुक हवा कहना

ये कहना हार न मानी कभी अंधेरों से

बुझे चराग़ तो दिल को जला लिया कहना

ये कहना तुम से बिछड़ कर बिखर गया 'तिश्ना'

कि जैसे हाथ से गिर जाए आईना कहना

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