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अब भी ज़र्रों पे सितारों का गुमाँ है कि नहीं - आलमताब तिश्ना कविता - Darsaal

अब भी ज़र्रों पे सितारों का गुमाँ है कि नहीं

अब भी ज़र्रों पे सितारों का गुमाँ है कि नहीं

ज़ेर-ए-पा अब भी तिरे काहकशाँ है कि नहीं

अब भी वो जश्न-ए-तरब है कि नहीं मक़्तल में

इक तमाशे को हुजूम-ए-निगराँ है कि नहीं

अब भी फ़रियाद-ब-लब है कि नहीं राँदा-ए-इश्क़

वो ही बे-चारगी-ए-दिल-ज़दगाँ है कि नहीं

कहिए नम है कि नहीं चश्म-ए-नदामत-आसार

क़ाफ़िले वालों को एहसास-ए-ज़ियाँ है कि नहीं

हर गुल-ए-नम के लिए है कि नहीं गर्दिश-ए-चाक

ये जहाँ कारगह-ए-कूज़ा-गराँ है कि नहीं

वो मिरा दुश्मन-ए-जाँ है कि नहीं संग-ब-दस्त

राएगाँ कोशिश-ए-सद-शीशा-गराँ है कि नहीं

'तिश्ना' कुछ सब से जुदा है कि नहीं तेरी ग़ज़ल

मुनफ़रिद 'सौदा' का अंदाज़-ए-बयाँ है कि नहीं

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