आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला

आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला

ग़ौर से देखा तो अपना ही तमाशा निकला

ज़िंदगी महफ़िल-ए-शब की थी पस-अंदाज़-ए-शराब

पीने बैठे तो बस इक घूँट ज़रा सा निकला

फिर चला मौसम-ए-वहशत में सर-ए-मक़्तल-ए-इश्क़

क़ुरआ-ए-फ़ाल मिरे नाम दोबारा निकला

दाद-ए-शाइस्तगी-ए-ग़म की तवक़्क़ो' बे-सूद

दिल भी कम-बख़्त तरफ़-दार उसी का निकला

है अजब तर्ज़ का रहरव दिल-ए-शोरीदा-क़दम

जब भी निकला सफ़र-ए-इश्क़ पे तन्हा निकला

वो रक़ीबों का पता पूछने आए मिरे घर

कोई तो उन से मुलाक़ात का रस्ता निकला

दर-ब-दर ख़्वार हुए फिरते हैं हम हिज्र-नसीब

जाँ-सिपारी का भी क्या ख़ूब नतीजा निकला

दिल में उठते रहे यादों के बगूले 'तिश्ना'

मुझ में सिमटा हुआ इक दर्द का सहरा निकला

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