कोई सूरत भी नहीं मिलती किसी सूरत में
कूज़ा-गर कैसा करिश्मा तिरे इस चाक में है
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तिरे ख़याल को ज़ंजीर करता रहता हूँ
मिरे हिसार से बाहर बुला रहा है मुझे
जमा हुआ है फ़लक पे कितना ग़ुबार मेरा
ज़रा सी धूप ज़रा सी नमी के आने से
कभी कभी कितना नुक़सान उठाना पड़ता है
तब्दीलियों का नश्शा मुझ पर चढ़ा हुआ है
कुछ रस्ते मुश्किल ही अच्छे लगते हैं
गुज़िश्ता रुत का अमीं हूँ नए मकान में भी
तहज़ीब की ज़ंजीर से उलझा रहा मैं भी
तमाम रंग अधूरे लगे तिरे आगे
मैं जिधर जाऊँ मिरा ख़्वाब नज़र आता है