गुज़िश्ता रुत का अमीं हूँ नए मकान में भी
पुरानी ईंट से तामीर करता रहता हूँ
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हम को लुत्फ़ आता है अब फ़रेब खाने में
इस फ़ैसले से ख़ुश हैं अफ़राद घर के सारे
कुछ रस्ते मुश्किल ही अच्छे लगते हैं
तमाम रंग अधूरे लगे तिरे आगे
तिरे ख़याल को ज़ंजीर करता रहता हूँ
अब कितनी कार-आमद जंगल में लग रही है
किसी को ढूँडते हैं हम किसी के पैकर में
लकीर खींच के बैठी है तिश्नगी मिरी
कभी कभी कितना नुक़सान उठाना पड़ता है
अपनी कहानी दिल में छुपा कर रखते हैं
माँगती है अब मोहब्बत अपने होने का सुबूत
कोई सूरत भी नहीं मिलती किसी सूरत में