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तिरे ख़याल को ज़ंजीर करता रहता हूँ - आलम ख़ुर्शीद कविता - Darsaal

तिरे ख़याल को ज़ंजीर करता रहता हूँ

तिरे ख़याल को ज़ंजीर करता रहता हूँ

मैं अपने ख़्वाब की ताबीर करता रहता हूँ

तमाम रंग अधूरे लगे तिरे आगे

सो तुझ को लफ़्ज़ में तस्वीर करता रहता हूँ

जो बात दिल से ज़बाँ तक सफ़र नहीं करती

उसी को शेर में तहरीर करता रहता हूँ

दुखों को अपने छुपाता हूँ मैं दफ़ीनों सा

मगर ख़ुशी को हमा-गीर करता रहता हूँ

गुज़िश्ता रुत का अमीं हूँ नए मकान में भी

पुरानी ईंट से ता'मीर करता रहता हूँ

मुझे भी शौक़ है दुनिया को ज़ेर करने का

मैं अपने आप को तस्ख़ीर करता रहता हूँ

ज़मीन है कि बदलती नहीं कभी मेहवर

मैं कैसी कैसी तदाबीर करता रहता हूँ

जो मैं हूँ उस को छुपाता हूँ सारे आलम से

जो मैं नहीं हूँ वो तश्हीर करता रहता हूँ

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