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मिरे हिसार से बाहर बुला रहा है मुझे - आलम ख़ुर्शीद कविता - Darsaal

मिरे हिसार से बाहर बुला रहा है मुझे

मिरे हिसार से बाहर बुला रहा है मुझे

कोई हसीन सा मंज़र बुला रहा है मुझे

जहाँ मुक़ीम था मैं एक अजनबी की तरह

वही मकान अब अक्सर बुला रहा है मुझे

जो थक के बैठ गया हूँ मैं बीच रस्ते में

तो अब वो मील का पत्थर बुला रहा है मुझे

हुआ है तिश्ना-लबी से मुआहिदा मेरा

अबस ही रोज़ समुंदर बुला रहा है मुझे

बुझा दिए हैं उसी ने कई चराग़ मिरे

जो एक शम्अ जला कर बुला रहा है मुझे

वो जानता है मैं उस के सितम का ख़ूगर हूँ

सो बार बार सितमगर बुला रहा है मुझे

बुला रहा है तो खुल कर कभी बुलाए वो

बस इक इशारे से अक्सर बुला रहा है मुझे

दयार-ए-ग़ैर में रहता हूँ मैं मगर 'आलम'

हर एक लम्हा मिरा घर बुला रहा है मुझे

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