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जमा हुआ है फ़लक पे कितना ग़ुबार मेरा - आलम ख़ुर्शीद कविता - Darsaal

जमा हुआ है फ़लक पे कितना ग़ुबार मेरा

जमा हुआ है फ़लक पे कितना ग़ुबार मेरा

जो मुझ पे होता नहीं है राज़ आश्कार मेरा

तमाम दुनिया सिमट न जाए मिरी हदों में

कि हद से बढ़ने लगा है अब इंतिशार मेरा

धुआँ सा उठता है किस जगह से मैं जानता हूँ

जलाता रहता है मुझ को हर पल शरार मेरा

बदल रहे हैं सभी सितारे मदार अपना

मिरे जुनूँ पे टिका है दार-ओ-मदार मेरा

किसी के रस्ते पे कैसे नज़रें जमाए रक्खूँ

अभी तो करना मुझे है ख़ुद इंतिज़ार मेरा

तिरी इताअत क़ुबूल कर लूँ भला मैं कैसे

कि मुझ पे चलता नहीं है ख़ुद इख़्तियार मेरा

बस एक पल में किसी समुंदर में जा गिरूँगा

अभी सितारों में हो रहा है शुमार मेरा

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