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बस एक तिरे ख़्वाब से इंकार नहीं है - आलम ख़ुर्शीद कविता - Darsaal

बस एक तिरे ख़्वाब से इंकार नहीं है

बस एक तिरे ख़्वाब से इंकार नहीं है

दिल वर्ना किसी शय का तलबगार नहीं है

आँखों में हसीं ख़्वाब तो हैं आज भी लेकिन

ताबीर से अब कोई सरोकार नहीं है

दरिया से अभी तक है वही रब्त हमारा

कश्ती में हमारी कोई पतवार नहीं है

हैरत से नए शहर को मैं देख रहा हूँ

दीवार तो है साया-ए-दीवार नहीं है

इस बज़्म की रौनक़ तो ज़रा ग़ौर से देखो

लगता है यहाँ कोई दिल-आज़ार नहीं है

आए हो नुमाइश में ज़रा ध्यान भी रखना

हर शय जो चमकती है चमकदार नहीं है

क्यूँ इतना हमें अपनी मोहब्बत पे यक़ीं है

दुनिया तो मोहब्बत की परस्तार नहीं है

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