रख्खूँ कहाँ पे पाँव बढ़ाऊँ किधर क़दम
रख़्श-ए-ख़याल आज है बे-इख़्तियार फिर
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गहरी सूनी राह और तन्हा सा मैं
ब-रंग-ए-ख़्वाब मैं बिखरा रहूँगा
हज़ार कारवाँ यूँ तो हैं मेरे साथ मगर
हवा भी चाहिए और रौशनी भी
क़रार-ए-गुम-शुदा मेरे ख़ुदा कब आएगा
कोई सुनता ही नहीं किस को सुनाने लग जाएँ
कोई इल्ज़ाम मेरे नाम मेरे सर नहीं आया
इश्क़ इक ऐसी हवेली है कि जिस से बाहर
अंधा सफ़र है ज़ीस्त किसे छोड़ दे कहाँ
कुछ फ़ासला नहीं है अदू और शिकस्त में
तू साथ है मगर कहीं तेरा पता नहीं
मैं नहीं हूँ नहीं कहीं भी नहीं