जैसे पानी पे नक़्श हो कोई
रौनक़ें सब अदम-सबात रहीं
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रख्खूँ कहाँ पे पाँव बढ़ाऊँ किधर क़दम
हज़ार कारवाँ यूँ तो हैं मेरे साथ मगर
हैरत से देखता हुआ चेहरा किया मुझे
अंधा सफ़र है ज़ीस्त किसे छोड़ दे कहाँ
ऐ अब्र-ए-इल्तिफ़ात तिरा ए'तिबार फिर
कुछ फ़ासला नहीं है अदू और शिकस्त में
टूटी हुई शबीह की तस्ख़ीर क्या करें
कोई इल्ज़ाम मेरे नाम मेरे सर नहीं आया
हब्स-ए-दरूँ पे जिस्म-ए-गिराँ-बार संग था
मैं नहीं हूँ नहीं कहीं भी नहीं
दश्त को ढूँडने निकलूँ तो जज़ीरा निकले
ये कौन सी जगह है ये बस्ती है कौन सी