इश्क़ इक ऐसी हवेली है कि जिस से बाहर
कोई दरवाज़ा खुले और न दरीचा निकले
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ये पूछ आ के कौन नसीबों जिया है दिल
खुली और बंद आँखों से उसे तकता रहा मैं भी
ये कौन सी जगह है ये बस्ती है कौन सी
अंधा सफ़र है ज़ीस्त किसे छोड़ दे कहाँ
रख्खूँ कहाँ पे पाँव बढ़ाऊँ किधर क़दम
मयस्सर से ज़ियादा चाहता है
हैरत के दफ़्तर जाऊँ
बदन मल्बूस में शोला सा इक लर्ज़ां क़रीन-ए-जाँ
हैरत से देखता हुआ चेहरा किया मुझे
तू साथ है मगर कहीं तेरा पता नहीं
गहरी सूनी राह और तन्हा सा मैं
ऐ अब्र-ए-इल्तिफ़ात तिरा ए'तिबार फिर