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तू साथ है मगर कहीं तेरा पता नहीं - अकरम नक़्क़ाश कविता - Darsaal

तू साथ है मगर कहीं तेरा पता नहीं

तू साथ है मगर कहीं तेरा पता नहीं

शाख़ों पे दूर तक कोई पत्ता हरा नहीं

ख़ामोशियाँ भरी हैं फ़ज़ाओं में इन दिनों

हम ने भी मौसमों से इधर कुछ कहा नहीं

तू ने ज़बाँ न खोली सुख़न मैं ने चुन लिए

तू ने वो पढ़ लिया जिसे मैं ने लिखा नहीं

ये कौन सी जगह है ये बस्ती है कौन सी

कोई भी इस जहान में तेरे सिवा नहीं

चलिए बहुत क़रीब से सब देखना हुआ

अपने गुमाँ से हट के कहीं कुछ हुआ नहीं

छोड़ा है जाने किस ने मुझे बाल-ओ-पर के साथ

ये किन बुलंदियों पे जहाँ पर हवा नहीं

रंग-ए-तलब है कौन सी मंज़िल में क्या कहें

आँखों में मुद्दआ नहीं लब पर सदा नहीं

पीछे तिरे ऐ राहत-ए-जान कुछ न पूछियो

क्या क्या हुआ नहीं यहाँ क्या कुछ हुआ नहीं

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