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लहू तेज़ाब करना चाहता है - अकरम नक़्क़ाश कविता - Darsaal

लहू तेज़ाब करना चाहता है

लहू तेज़ाब करना चाहता है

बदन इक आग दरिया चाहता है

मयस्सर से ज़ियादा चाहता है

समुंदर जैसे दरिया चाहता है

इसे भी साँस लेने दे कि हर-दम

बदन बाहर निकलना चाहता है

मुझे बिल्कुल ये अंदाज़ा नहीं था

वो अब रस्ता बदलना चाहता है

नई ज़ंजीर फैलाए है बाँहें

कोई आज़ाद होना चाहता है

रुतें बदलीं नए फल-फूल आए

मगर दिल सब पुराना चाहता है

सुकूँ कहिए जिसे है रास्ते में

दो इक पल ही में आया चाहता है

हवा भी चाहिए और रौशनी भी

हर इक हुज्रा दरीचा चाहता है

बगूलों से भरा है दश्त सारा

यही तो रोज़ सहरा चाहता है

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