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कुछ फ़ासला नहीं है अदू और शिकस्त में - अकरम नक़्क़ाश कविता - Darsaal

कुछ फ़ासला नहीं है अदू और शिकस्त में

कुछ फ़ासला नहीं है अदू और शिकस्त में

लेकिन कोई सुराग़ नहीं है गिरफ़्त में

कुछ दख़्ल इख़्तियार को हो बूद-ओ-हस्त में

सर कर लूँ ये जहान-ए-आलम एक जस्त में

अब वादी-ए-बदन में कोई बोलता नहीं

सुनता हूँ आप अपनी सदा बाज़-गश्त में

रुख़ है मिरे सफ़र का अलग तेरी सम्त और

इक सू-ए-मुर्ग़-ज़ार चले एक दश्त में

किस शाह का गुज़र है कि मफ़्लूज जिस्म-ओ-जाँ

जी जान से जुटे हुए हैं बंद-ओ-बस्त में

ये पूछ आ के कौन नसीबों जिया है दिल

मत देख ये कि कौन सितारा है बख़्त में

किस सोज़ की कसक है निगाहों के आस पास

किस ख़्वाब की शिकस्त उमड आई है तश्त में

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