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खुली और बंद आँखों से उसे तकता रहा मैं भी - अकरम नक़्क़ाश कविता - Darsaal

खुली और बंद आँखों से उसे तकता रहा मैं भी

खुली और बंद आँखों से उसे तकता रहा मैं भी

तिरी दुनिया के पीछे भागता फिरता रहा मैं भी

मिरी आवाज़ पिछली रात तुझ तक कैसे आ पाती

किसी गहरे कुएँ में रात भर सोता रहा मैं भी

ब-ज़ाहिर देखती आँखें ब-ज़ाहिर जागती रूहें

ब-ज़ाहिर इन सभों के साथ ही जीता रहा मैं भी

मैं हूँ इस कारसाज़-ए-बे-कसाँ की दस्तरस में यूँ

वो जिस साँचे में भी ढाला किया ढलता रहा मैं भी

बदन मल्बूस में शोला सा इक लर्ज़ां क़रीन-ए-जाँ

दिल-ए-ख़ाशाक भी शोला हुआ जलता रहा मैं भी

है जिस राह-ए-यक़ीं पर गामज़न पा-ए-ख़िरद हर-दम

उसी राह-ए-गुमाँ पर मुद्दतों चलता रहा मैं भी

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