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गहरी सूनी राह और तन्हा सा मैं - अकरम नक़्क़ाश कविता - Darsaal

गहरी सूनी राह और तन्हा सा मैं

गहरी सूनी राह और तन्हा सा मैं

रात अपनी चाप से डरता सा मैं

तू कि मेरा आइना होता हुआ

और तेरे अक्स में ढलता सा मैं

कब तिरे कूचे से कर जाना है कूच

इस तसव्वुर से ही घबराता सा मैं

मेरी राहों के लिए मंज़िल तू ही

तेरे क़दमों के लिए रस्ता सा मैं

आसमाँ में रंग बिखराता सा तू

और सरापा दीद बन जाता सा मैं

हसरत-ए-ताबीर से छूटूँ कभी

हर नफ़स इस ख़्वाब में जलता सा मैं

बे-कराँ होता हुआ दश्त-ए-गुमाँ

और यक़ीं के दार पर आया सा मैं

ना कोई मंज़र न अब कोई ख़याल

अब हर इक शय भूलता जाता सा मैं

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