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दश्त को ढूँडने निकलूँ तो जज़ीरा निकले - अकरम नक़्क़ाश कविता - Darsaal

दश्त को ढूँडने निकलूँ तो जज़ीरा निकले

दश्त को ढूँडने निकलूँ तो जज़ीरा निकले

पाँव रख्खूँ जो मैं वीराने में दुनिया निकले

एक बिफरा हुआ दरिया है मिरे चार तरफ़

तू जो चाहे इसी तूफ़ाँ से किनारा निकले

एक मौसम है दिल ओ जाँ पे फ़क़त दिन हो कि रात

आसमाँ कोई हो दिल पर वही तारा निकले

देखता हूँ मैं तिरी राह में दाम-ए-हैरत

रौशनी रात से और धूप से साया निकले

इस से पहले ये कभी दिल ने कहा ही कब था

रात कुछ और बढ़े चाँद दोबारा निकले

आँख झुकती है तो मिलती है ख़मोशी को ज़बाँ

बंद होंटों से कोई बोलता दरिया निकले

इश्क़ इक ऐसी हवेली है कि जिस से बाहर

कोई दरवाज़ा खुले और न दरीचा निकले

सेहर ने तेरे अजब राह सुझाई हमदम

हम कहाँ जाने को निकले थे कहाँ आ निकले

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