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अब दिल भी दुखाओ तो अज़िय्यत नहीं होती - अकरम महमूद कविता - Darsaal

अब दिल भी दुखाओ तो अज़िय्यत नहीं होती

अब दिल भी दुखाओ तो अज़िय्यत नहीं होती

हैरत है किसी बात पे हैरत नहीं होती

अब दर्द भी इक हद से गुज़रने नहीं पाता

अब हिज्र में वो पहली सी वहशत नहीं होती

होता है तो बस एक तिरे हिज्र का शिकवा

वर्ना तो हमें कोई शिकायत नहीं होती

कर देता है बे-साख़्ता बाँहों को कुशादा

जब बच के निकल जाने की सूरत नहीं होती

दिल ख़ुश जो नहीं रहता तो इस का भी सबब है

मौजूद कोई वज्ह-ए-मसर्रत नहीं होती

यूँ बर-सर-ए-पैकार हूँ मैं ख़ुद से मुसलसल

अब उस से उलझने की भी फ़ुर्सत नहीं होती

अब यूँ भी नहीं है कि वो अच्छा नहीं लगता

यूँ है कि मुलाक़ात की सूरत नहीं होती

ये हिज्र-ए-मुसलसल का वज़ीफ़ा है मिरी जाँ

इक तर्क-ए-सुकूनत ही तो हिजरत नहीं होती

दो चार बरस जितने भी हैं जब्र ही सह लें

इस उम्र में अब हम से बग़ावत नहीं होती

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