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ज़िंदगी तेरे अजब ठोर-ठिकाने निकले - अकमल इमाम कविता - Darsaal

ज़िंदगी तेरे अजब ठोर-ठिकाने निकले

ज़िंदगी तेरे अजब ठोर-ठिकाने निकले

पत्थरों में तिरी तक़दीर के दाने निकले

दर्द टीस और जलन से हैं अभी ना-वाक़िफ़

ज़ख़्म जो बच्चे हथेली पे उगाने निकले

मैं तो हर शय का ख़रीदार हूँ लेकिन वो आज

इतनी जुरअत कि मिरे दाम लगाने निकले

नई तहक़ीक़ ने क़तरों से निकाले दरिया

हम ने देखा है कि ज़र्रों से ज़माने निकले

तल्ख़ जुमलों के कहाँ तीर ख़ता हो पाए

देखने में तो ग़लत उस के निशाने निकले

ज़ेहन में अजनबी सम्तों के हैं पैकर लेकिन

दिल के आईने में सब अक्स पुराने निकले

दे न पाया वो कोई वा'दा-ख़िलाफ़ी का जवाज़

मुज़्महिल उस के न आने के बहाने निकले

मैं तो ख़ुशियों के उगाता रहा पौदे 'अकमल'

और हर शाख़ पे ज़ख़्मों के ख़ज़ाने निकले

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