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कमान छोड़ गए बे-नज़ीर जितने थे - अकमल इमाम कविता - Darsaal

कमान छोड़ गए बे-नज़ीर जितने थे

कमान छोड़ गए बे-नज़ीर जितने थे

लगे हैं ठीक निशाने पे तीर जितने थे

फ़साद रोकने कम-ज़र्फ़ लोग पहुँचे हैं

घरों में रह गए रौशन ज़मीर जितने थे

उन्हें जला दिया संजीदगी के सूरज ने

हमारे अहद के बच्चे शरीर जितने थे

थकन उतार रहे थे नए सफ़र के लिए

सफ़र से आए हुए राहगीर जितने थे

मिरे बयान पे एहसास हो गए ज़ख़्मी

अगर बचे हैं तो बस बे-ज़मीर जितने थे

बड़ी लकीर बराबर में खींच आया था

मिले हैं हम से भी छोटी लकीर जितने थे

क़दम ही रुक गए 'अकमल' बस एक फ़ायर पर

फ़रार हो गए होते असीर जितने थे

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