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आईना देखता हूँ - अख़्तर ज़ियाई कविता - Darsaal

आईना देखता हूँ

मैं जब कभी

दो घड़ी

ग़ौर से आईना देखता हूँ

तो माज़ी के

उलझे हुए रोज़ ओ शब

की शनासा लकीरों

में धुँदली तसावीर

माहौल से बे-ख़बर बोलती हैं

कि जैसे किसी अजनबी शख़्स की

ज़िंदगी की हसीं साअतों

दिल-रुबा हसरतों

और

उमंगों के कोह-ए-निदा के

तिलिस्मात-ए-ख़ुफ़्ता के दर खोलती हैं

में हैरान सा

देर तक सोचता हूँ

मैं अपने सरापा के मिटते निशानात को

हाल के ज़ाइचों से

जुदा जानता हूँ

मुझे वक़्त की तेज़ रफ़्तार से

जिस्म की हार से

ख़ौफ़ आता है

फिर भी

घड़ी दो घड़ी के लिए

आईना देखता हूँ

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