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मिला जो कोई यहाँ रम्ज़-आशना न मुझे - अख़्तर ज़ियाई कविता - Darsaal

मिला जो कोई यहाँ रम्ज़-आशना न मुझे

मिला जो कोई यहाँ रम्ज़-आशना न मुझे

वबाल-ए-होश रहा हर्फ़-ए-महरमाना मुझे

उदास फिरती है शादाब वादियों की महक

है काएनात यही कुंज-ए-आशियाना मुझे

अदू की संग-ज़नी की नहीं मुझे परवा

तिरे करम का मयस्सर है शामियाना मुझे

कोई इलाज-ए-ग़म-ए-ज़िंदगी बता वाइज़

सुने हुए जो फ़साने हैं फिर सुना न मुझे

सुबुक-सरी में ज़मीन-ए-वतन भी तंग हुई

कशाँ कशाँ लिए फिरता है आब-ओ-दाना मुझे

मिरे नसीब में है किश्त-ए-जाँ की वीरानी

न आई रास रह-ओ-रस्म-ए-आशिक़ाना मुझे

भटक रहा हूँ उसी की तलाश में 'अख़्तर'

कि जिस दयार को छोड़े हुआ ज़माना मुझे

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