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अहद-ए-वफ़ा का क़र्ज़ अदा कर दिया गया - अख़्तर ज़ियाई कविता - Darsaal

अहद-ए-वफ़ा का क़र्ज़ अदा कर दिया गया

अहद-ए-वफ़ा का क़र्ज़ अदा कर दिया गया

महरूमियों का दर्द अता कर दिया गया

फूलों के दाग़-हा-ए-फ़रोज़ाँ को देख कर

अर्ज़ां कुछ और रंग-ए-हिना कर दिया गया

वारफ़्तगान-ए-शौक़ का शिकवा सुने बग़ैर

गुलशन सुपुर्द-ए-अहल-ए-जफ़ा कर दिया गया

दिल से उमंग लब से दुआ छीन ली गई

कहने को क़ैदियों को रिहा कर दिया गया

यक-दो-नफ़स भी कार-ए-ज़ियाँ हम न कर सके

ख़ुशबू को पैरहन से जुदा कर दिया गया

माँगी थी आफ़ियत की दुआ आगही का ग़म

पहले से भी कुछ और सिवा कर दिया गया

'अख़्तर' हवस-गरान-ए-अक़ीदत के फ़ैज़ से

सब कुछ रवा ब-नाम-ए-ख़ुदा कर दिया गया

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