वक़्त अब दस्तरस में है 'अख़्तर'
अब तो मैं जिस जहान तक हो आऊँ
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शश-जिहत
मैं अजब आदमी हूँ
अभी तो पर भी नहीं तौलता उड़ान को मैं
ये काएनात मिरे सामने है मिस्ल-ए-बिसात
नए सुर की तमसील
गर्द-बाद
ज़र-ए-नाब
बुत-साज़
अपने पहले मकान तक हो आऊँ
शाम
शाम आए और घर के लिए दिल मचल उठे