ज़र-ए-नाब

इक ख़्वाब के फ़ासले पे लहू है

कोहसार के सुरमई किनारे

वादी से शफ़क़ उछालते हैं

जी में ये भरा हुआ सुनहरा

भीतर में रुका हुआ दसहरा

काग़ज़ पे नुमू करेगा कब तक

ऐ हर्फ़-ए-सितारा-साज़ अब तो

उठती है क़नात रौशनी की

ज़ुल्मत का शिआ'र है इकहरा

ख़ुफ़्ता है जिहत जिहत उजाला

इम्काँ है बसीत और गहरा

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