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शश-जिहत - अख़्तर उस्मान कविता - Darsaal

शश-जिहत

लम्हा-ए-नौ अज़ीम है

सोज़िश-ए-दिल है क्या बला जज़्ब-ओ-जुनूँ भी कुछ नहीं

साँझ समाज हेच हैं रिश्ता-ए-ख़ूँ भी कुछ नहीं

हसरत व आरज़ू की नय बंदिश व बस्तगी की लय

दमदमा-ए-क़दीम है

अहद-ए-कुहन गुज़र गया लम्हा-ए-नौ अज़ीम है

आज का सेहर बे-बदल आज की लौ अज़ीम है

इत्र की रूह में बसी अस्र के रूप में रची

फूटती पौ अज़ीम है ये तग-ओ-दौ अज़ीम है

बहर-ए-जदीद औज मौज इस में गुहर हैं मौज मौज

सत्ह-ब-सत्ह सब सदफ़ नूर की रौ अज़ीम है

ताज़ा तरीन ये जहाँ ताज़ा नुजूम व आसमाँ

उन की झलक जुदा जुदा उन का जिलौ अज़ीम है

और है इस की ताब-ओ-तब और है चाल और छब

जो ख़द-ओ-ख़ाल हों सो हों आइना तो अज़ीम है

लम्हा-ए-नौ अज़ीम है

इस में रियासतों का धन सारे नशात

सब मेहन

ऐश का दिल-ओ-बदन ग़ारत-ए-ज़िंदगी का फ़न

एक बटन का मरहला

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