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नए सुर की तमसील - अख़्तर उस्मान कविता - Darsaal

नए सुर की तमसील

कामनी ख़्वाब की लौ में हँसती हुई कामनी

सोला बरस की तक़्वीम में फ़स्ल-ए-गुल का कोई तज़्किरा

तक न था

मैं ने बत्तीस बत्तीस झड़ रुतें काट दीं

अब जो तमसील के एक वक़्फ़े में तुम से मिला हूँ

तो साँसों में नम चाल में उन ज़मानों का रम

जी उठा है

जो अहद-ए-ज़मिस्ताँ में यख़ थे

सक़र सा सक़र

कामनी ख़ंदा-ए-गुल की कुल ज़िंदगी

एक गुलचीं की वहशत भरी आँख है

ये चटकना ये खुलना

बहुत सेहर-आवर सही जागने और सोने में इक

ख़्वाब-ए-मौहूम से कुछ ज़ियादा नहीं

ख़्वाब-ओ-ख़्वाहिश अजब सिलसिला है

बहुत दूर बहती हुई आबशारों का इक सिलसिला

जिस में कोह-ए-तज़ब्ज़ुब की ख़ुशबू भी है

अहद-ओ-पैमाँ का जादू भी

ख़ूँ से सुरों तक

सुरों से उस इक लफ़्ज़ तक

जिस में रागों का जौहर बँधा है

कहीं एेमनी रस कहीं मारवा ठाठ भाग्यश्री

भैरवीं और पहाड़ी

वो सब कुछ जो अपने लहू में दहकता चहकता है

जिस के तनाज़ुर में हम बीस्त-ओ-शश-साल

पहले बंधे थे

उन्ही आबशारों से मुझ को सदा आ रही है

सो मैं जा रहा हूँ

नए सुर उठाने

कि सरगम की फ़रसूदगी दीदा-ओ-दिल बुझाने लगी है

नया सुर जिसे लफ़्ज़ तरतीब देते हैं

पहुँचे तो जानो कि सानेअ' के लफ़्ज़ों से उठती नमी तुम

तक आई

पस उम्र का हासिल फ़न जैसे सर्फ़ा-ए-जाँ

कहीं कुछ नहीं

बीसत-ओ-शश-साल दर ख़िदमत फ़न बसर कर्दा अम

ब-चश्म-ए-नम औराक़-ए-तर कर्दा अम

दर फ़क़ीरी गुज़र कर्दा अम

हर्फ़ सर कर्दा अम

ये जो लफ़्ज़ों की पैग़म्बरी है न होती तो इबरत

सरा में भला कौन जीता

मैं लफ़्ज़ों में सुस्कारता हूँ

सुना तुम ने सुर

नग़्मा-ए-ताज़ा का ये कितने क़रनों से दिल में किसी

सिल की सूरत जमा था

ये जू-ए-रवाँ तुम तक आई मगर कितने

ख़ुर्शीद-ओ-महताब आहंग

बनते हुए बुझ गए

कितने दिन गुल हुए

कितनी रातें ढलीं

ख़ैर कैसा हिसाब

ऐसे नग़्मों में ख़ूँ और चराग़ों के रोग़न का एक

पुर्सा किसे दूँ

भला कोई अज़ा-दार है

पुर्सा-दारों की तमसील में कोई वक़्फ़ा नहीं

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