उम्र-ए-गुरेज़ाँ के नाम
उम्र यूँ मुझ से गुरेज़ाँ है कि हर गाम पे मैं
इस के दामन से लिपटता हूँ मनाता हूँ इसे
वास्ता देता हूँ महरूमी ओ नाकामी का
दास्ताँ आबला-पाई की सुनाता हूँ इसे
ख़्वाब अधूरे हैं जो दोहराता हूँ उन ख़्वाबों को
ज़ख़्म पिन्हाँ हैं जो वो ज़ख़्म दिखाता हूँ उसे
उस से कहता हूँ तमन्ना के लब-ओ-लहजे में
ऐ मिरी जान मिरी लैला-ए-ताबिंदा-जबीं
सुनता हूँ तू है मिरी लैला-ए-ताबिंदा-जबीं
सुनता हूँ तू है मह ओ महर से भी बढ़ के हसीं
यूँ न हो मुझ से गुरेज़ाँ कि अभी तक मैं ने
जानना तुझ को कुजा पास से देखा भी नहीं
सुब्ह उठ जाता हूँ जब मुर्ग़ अज़ाँ देते हैं
और रोटी के तआक़ुब में निकल जाता हूँ
शाम को ढोर पलटते हैं चरा-गाहों से जब
शब-गुज़ारी के लिए मैं भी पलट आता हूँ
यूँ न हो मुझ से गुरेज़ाँ मिरा सरमाया अभी
ख़्वाब ही ख़्वाब हैं ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहीं
मुल्तवी करता रहा कल पे तिरी दीद को मैं
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